अपनी ही आजादी के आदी बन गए
जाने हम क्यों बागी बन गए
बेबसी की रस्सी पर लटक कर
कई ख्वाब मेरे खुदकुशी कर गए.
धकेलो कितनी भी जोर से मुझे
संभलना सीख गई हूं मैं
मुझे जलाना मुश्किल होगा
कागज की तरह भीग गई हूं मैं.
ऐ खुदगर्ज जमाने जो तुम मेरा दिल ना दुखाते
तो मेरे शब्द यूं शोले ना बरसाते
उडूं मै आसमान में या तेरुं बहती नदी में
मिले हो तुम हमेशा मेरी राह में जाल बिछाते.
कलम की नोक को सूई की तरह चुभाया
दुश्मनों के साथ-साथ अपनों को भी रुलाया
जान लो यारो मैं तो हूं बागी
जो रिश्ते निभाने के लिए भी ना होते राजी.
सब सूखा बंजर सा दिखता मुझे
चाहे कितनी भी हरी-भरी हो वादी
जो ना किसी से सहमत हो
वो मैं ही हूँ एक बागी.
✍️✍️✍️✍️नीतू कंडेरा ✍️✍️✍️✍️✍️