बिछड़ा जो फिर तुमसे तनहा ही रह गया,
ग़म-ए-हिज़्र मे अकेले रोता ही रह गया।
मुसलसल तसव्वुर में बहे आँसू भी खून के
शब् में तुझे याद करता, करता ही रह गया!
मैंने शाम ही से बुझा दिए हैं सब चराग,
शाम से दिल जला तो जलता ही रह गया।
था गांव में जब तलक प्यास ना थी मुझे
शहर जो आ गया हूँ तो प्यासा ही रह गया
कुछ ना रहा याद मुझे बस आका का घर रहा,
मेरी आँखों में बस मंज़रे-मदीना ही रह गया
सच का ये सिला हैं के फांसी मिली मुझे,
और वो झूठो का रहबर सच्चा ही रह गया
जमाना टेक्नोलॉजी से पहुँचा हैं चाँद तक,
‘तनहा’ हैं जो ग़ज़ल को कहता ही रह गया
तारिक़ अज़ीम ‘तनहा’
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