नहीं चाह रही इस जीवन की
भर गई समर्पण की गगरी
अब पछताए क्या होवे है
जो रोवे है सो खोवे है
तीर लगा इस पाथर को
पाथर में भी जान तो होवे है
अबका होगा ? अब का होई ?
यही पूँछ पूँछ हम रोवे है!
नहीं चाह रही इस जीवन की
भर गई समर्पण की गगरी
अब पछताए क्या होवे है
जो रोवे है सो खोवे है
तीर लगा इस पाथर को
पाथर में भी जान तो होवे है
अबका होगा ? अब का होई ?
यही पूँछ पूँछ हम रोवे है!