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मदिरा और बारिश

ऐ मदिरा, मैं नशे में तेरे चूर रहता हूं होश आ भी जाए तो खुद को भूल जाता हूँ |
आदत सी हो गई है तेरी इस कदर, न पाऊं तुझे पास तो बैचेन हो उठता हूँ |

नासमझ हैं वो लोग जो तुझे पीने वाले को शराबी कहकर बदनाम करते हैं |
तू तो वो अमृत है जिसे हलक से नीचे उतार कर इंसान बड़े से बड़ा गम भी भुला दे |

ऐ मदिरा, आज फिर से मौसम ने करवट ली है, एक बार फिर तेरी सौतन (बारिश) बाहर जमकर बरस रही है |
और मेरी हालत तो देख, गोपीयों से घिरे कृष्ण की तरह हुई है ठीक से उसे देख भी नहीं सकता |

उसे निहारता हूं तो तू गले को चुभने लगती है और तुझे हलक में उतारु तो वो जमकर बरसने लगती है |
तेरे पास होने पर उसकी ईर्ष्या साफ झलकती है, उसमें (बारिश) भीग जाऊं तो तू पैमाने को खन से तोड़कर कर बिखर जाती है |

ऐ मदिरा, मैं इस दोतरफा प्रेम में पिस चुका हूँ और उसका बेमौसम आना नामुमकिन सा लगता है |
मेरी वफा का कुछ तो लिहाज़ कर पगली मुझसे तेरी दूरी अब बर्दाश्त नहीं हो पाती |

वो माशूका छोड़कर चली जायेगी अपने किसी और प्रेमी की बाहों में इसमें कोई संदेह नहीं |
पर तू एक बार जिसके हलक से नीचे उतर जाए, तो मजाल क्या उसकी जो किसी और का हो जाए |

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