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मन की सोच से……
आईने को जब देखता हूँ
खुद को घुटता पाता हूँ
लगता हैं नहीं दे पायेगे
खुशी इस जमाने में
खुद को जीतना छिपाना चाहता हूँ
बेवसी मुझ पर हँसती हैं
मेरे गमो की माला को
दिन रात जपती हैं
नहीं दे सकता मैं
किसी के जीवन में खुशी
मैं समझ नहीं पाता
क्या खता कर बैठा मैं
खुशी देने निकला
ऑसू दे बैठा मैं
खुद को कैसे समझाऊ
मेरे अपने ही रुठे रहते हैं
लगता हैं मैं अपने अस्तित्व को
खो दुगॉ गम की परछाई में
महेश गुप्ता जौनपुरी
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