बड़े मायूस होकर, तेरे कूचे से हम निकले।
देखा न एक नज़र, तुम क्यों बेरहम निकले।
तेरी गलियों में फिरता हूँ, एक दीद को तेरी,
दर से बाहर फिर क्यों न, तेरे कदम निकले।
घूरती निगाहें अक्सर मुझसे पूछा करती हैं,
क्यों यह आवारा, गलियों से हरदम निकले।
मेरी शराफत की लोग मिसाल देते न थकते,
फिर क्यों उनकी नज़रों में, बेशरम निकले।
ख्वाहिश पाने की नहीं, अपना बनाने की है,
हमदम के बाँहों में ही, बस मेरा दम निकले।
देवेश साखरे ‘देव’