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मुकाम

साम दाम दण्ड भेद से मुकाम तो पा लोगे।
पर आईने में खुद से, क्या नजरें मिला लोगे?

काबिलियत कितनी है, गिरेबां में झाँक लो,
काबिल हकदार से उसका हक तो चुरा लोगे।
पर आईने में खुद से, क्या नजरें मिला लोगे?

मुकाम पाना आसान है, वहाँ ठहरना कठिन,
गलत की जोर पे अपनी जगह तो बना लोगे।
पर आईने में खुद से, क्या नजरें मिला लोगे?

ज़मीर जानता है, मुझसे भी बेहतर यहाँ पर,
ज़मीर को मारकर, खुद को बेहतर बना लोगे।
पर आईने में खुद से, क्या नजरें मिला लोगे?

देवेश साखरे ‘देव’

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