गुजर कभी मुफ़लिसों की बस्ती में।
मिल कर हर खुशी मनाते मस्ती में।
जरूरतें पूरी होने से बस मतलब इन्हें,
क्या रखा दिखावे की महंगी सस्ती में।
परवाह किसे, किनारा मिले ना मिले,
कश्ती पानी में है, या पानी कश्ती में।
दौलतमंद को खुद से ही फुर्सत कहाँ,
मद में चूर, वो अपनी बड़ी हस्ती में।
दूसरों के गम से, इन्हें सरोकार कहाँ,
जीते हैं ये, बस अपनी खुदपरस्ती में।
देवेश साखरे ‘देव’