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मैंने खुद ही

मैंने खुद ही
खींची लकीरें
अपने दरम्या

मैंने खुद ही
बना दिये
इतने धर्म

मैंने खुद ही
सीखा दिया
भूर्ण को छल कपट

मैंने खुद ही
गिरा दिए
अपने संस्कार

मैंने खुद ही
मिटा दिए
अपने हर्ष को

मैंने खुद ही
बना लिए
खाली मकान

मैंने खुद ही
जला दिए
अपने सपनो को

मैंने खुद ही
ओढ़ लिए
कई चेहरे

मैंने खुद ही
सब किया है
अब तक

मैंने खुद ही
रचा है
अतृप्त रंगमच

मैंने खुद ही
सजाये है
सूनी सेज

मैंने खुद ही
बहाये है
आँखों से नीर

मैंने खुद ही
नहीं माना
खुदको दोषी

क्या हो अंत
इस खुद का
जो है अनंत

जिजीविषा के
इस मायावी
अंतर्मन को

किसी की नहीं
दस्तक चाहिए, बस ,
अपने खुद की

राजेश’अरमान’

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