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मैं चुप हूं।

मैं चुप हूं, खामोश हूं।
एक मौन दरिया हूं।
शांत हूं ,निर्मल हूं।
कभी एक आहट भी,
हिला देता था।
मेरे भीतर के तूफान को,
विचलित हो जाती थी।
मैं अपनी राहों से।
कायर थी ,
आश्रित थी।
वह आवाज,
जो दब चुकी थी।
अब निर्भय हूं,
स्वाभिमानी हूं।
क्यों जगाया तुमने,
मेरे भीतर के तूफान को।
थी मैं शांत, खामोश थी।
पर अब डरना छोड़ चुकी हूं।
स्वीकारती थी सब,
जो तुमने दिया।
वह दर्द जो मैंने सहा।
वह आंसु,
जो मैंने पिया।
अब मैं आश्रित नहीं।
एक अमूर्त विचार हूं।
सामर्थ्य रखती हूं मैं,
डूबा दू तुम्हें,
मेरे विचारों की पूर्णता से।
मेरी आजादी से,
मेरी बेपरवाही से,
जो तूम्हें भी मौन कर देगा।
मत जगाना मुझे,
मत डरना मुझे।

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