ओ; तट पर बैठे, तटस्थ लोगों !
सुनो, मेरे सन्मुख ; लक्ष्य है
—- राह नहीं है
मैं; धारा पर धारा—प्रवाह
मुझे विराम की चाह नहीं है ॰
तुम; क्या समझे !
डूब जाऊँगा ?
संघर्षों के कुरुक्षेत्र में !!
धर्म—राज सा ऊब जाऊँगा ??
लेकिन; मैं गहरे पानी की
पहले थाह लिया करता हूँ
दारूण–दु:खों में तपा हूँ : जी भर
अब; प्राप्य—सुखों को जीया करता हूँ ॰
तुम; तमाशबीन , तर्पण की ख़ातिर
तट पर बैठे ऊँघ रहे हो …………..
तुम; कुकुरवंश , पहचान की ख़ातिर
दुम दूजे की सूँघ रहे हो …………..
सुनो !
तुम्हारा उपहास ही मेरी आस्था है
और; तुम्हारा संताप — मेरी पतवार
तुम किनारे पर : जड़ हो
मैं; धारा के विरुद्ध सवार
मेरी नौका…..लड़खड़ाती है—आगे बढ़ जाती है
नपुंसक—कायर पीढ़ी; किनारों पर ही सड़ जाती है ॰
पानी………. एक भय है
और……….. जीवन : अभय
भय ; भूत बनकर हमें डराता है
जीवन—संघर्ष; इतिहास बनाता है
तट की तटस्थता , तुम्हें ओढ़ लेगी
धारा की गतिशीलता , जीवन को मोड़ देगी
राज—मार्ग सा जीवन —— बंधन का पर्याय है
——————————- पगडंडी : व्यवहार है ॰
ओ; तटस्थ लोगों !
तुम, एक हो !!
क्योंकि; तट पर हो ……..
मैं हूँ…अकेला —– लहरों का….रेला
मुझे; विचलित कर दे , भले ही
: पथ—च्युत नहीं कर सकता ॰
लक्ष्य है ——— मेरी दृढ़ता
मैं; लहरों से नहीं डरता
: क्योंकि; मैं ! जड़ नहीं हूँ………..
: अनुपम त्रिपाठी
[ क्षमा—याचना : यह कविता किसी पर आक्षेप नहीं ——आपके स्नेह से; स्वयं पर उपजे विश्वास का प्रतिफल है।]
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