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मैं निरीह…

वह मुझे बताता है  निरीह  निर्जन  निरवता वासी हूँ

जब से मानव मानव न रहा मै बना हुआ वनवासी हूँ |

अवतरण हुआ जब कुष्ठमनन कुंठा व्याप्त हुआ जग में

तब विलग हो गया मै जग से अब एकांत का वासी हूँ ||

मैं शुन्यकाल के अनुभव का साक्षी क्या तुमको बतलाऊँ

मैं साधक सूने का मतिहीन मैं आत्मदर्श अभिलाषी हूँ |

तुम तीर्थभ्रमण करते हो व्यर्थ सब व्याप्त तुम्हारे अंतर में

आए जो हुए मुझ में विलिन  देखे मै मथुरा काशी हूँ ||

उपाध्याय…

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