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यह सूखा सावन।।

बादलों से इक किसान पुछता रहा,
महीना तो आया सावन, भीगी नहीं जमीं की लाज।
बोलो भला कैसी रही यह गर्मी की मार,
खेतों को बंजर देख उद्वर लगी आग।
ऐठी माटि हाथ दिये पसार,
बादल की लुका-छुपी में,
व्यर्थ गयी नयनों की कटार।
महीना तो आया सावन, भीगी नहीं जमीं की लाज।
भूखे बिल्के बच्चे, कहाँ से आये रोटी चार।
कभी क्रोधित होता, कभी मार्मिक।
गरीबी से लड़ता, जीवित यह किसान ।
महीना तो आया सावन, भीगी नहीं जमीं की लाज।
कविता पेटशाली।।

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