अच्छाईं भाती है फिर भी
जुबां गलत बोल जाती है
ये कैसी मानव जाति है
सामान तो हरदम है पास
जब हो कुछ बहुत खास
तभी तो जरूरत आती है
अंतर तो सर झुकाता है
बाहर कुछ और दिखाता है
सरलता को क्यूं छुपाती है
आसमान पे थूकने को आमादा है
अपना काम पड़ा रह जाता है
फिर गुस्सा औरों पे दिखाती है
समय जैसे ख़ुद का गुलाम हो
जरूरी काम कल पर टाल दो
ब्यर्थ औरों पे झल्लाती है
हर आरंभ का है अंत यहां
आराम से मन ऊबता कहां
जमे तन से अब चिल्लाती है