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राजतंत्र हो या प्रजातंत्र

राजतंत्र हो या प्रजातंत्र सब चाहते है नृपदुखभंजन।
पर किसी क्या मिला ये जानते है जगत-जहां।
सब रामराज की कल्पना करते पर राम की नीति कोय न जाने?
राम की व्यवस्था चाहते हो तो अपनाओ निज धरा पे कौटिल्य अर्थशास्त्र।
और कर दो देश को फिर से अखण्ड- समृध्द-शक्तिशाली और धनवान।।1।।

हम यह देख रहें है, निज राष्ट्र की व्यवस्था किस आधार पे टिकी है ।
यहाँ के राजा अब इन्द्रियों के दास और प्रजा उनके खेल-खिलौने है ।
यहाँ के नृप अब इन्द्रियों के अधीन है,और प्रजा उनके भोग-विलास की वस्तु है।
अब नृप प्रजा को सुत समझें नहीं, वो समझें ये तो मेरे पाँव तले मिट्टी के जैसे है।
इसीलिए तो अब प्रजा राजा पे कंकड़-पत्थर बरसाती है।
(इसीलिए तो अब जनता सरकार पे कंकड़-पत्थर बरसाती है।)।2।।

देख प्रजा की स्थिति अब राजा का उर दुखता नहीं।
नेत्र के होते अब राजा नेत्रहीन है, उन्हें निज राष्ट्र की दुर्दशा दिखता नहीं।
राजनीतिज्ञ और अर्थशास्त्री राजअर्थ के पीछे यूँ भागते है।
जैसे गणिका भागते धनवान पुरूष के अर्थ के पीछे है।
कुराजनीतिज्ञ और अधम-नीच अर्थशास्त्री के कारण अब भारत की यह दुर्दशा है।।3।।

कराध्यक्ष अब निज राष्ट्र की कर चुराते, देख स्थिति सरकार यूँ मुस्कुराते।
जैसे प्रेम-विरह में कोई प्रेमी-युगल मुस्कुराये, ये क्यूँ होता ये जाना हमने?
सुनके बहुत रोना आया, इन्हें कराध्यक्ष से निज स्वारथ कुछ पुरे होते है।
कैसे देश बने अब समृ्द्ध-शक्तिशाली और धनवान ।
जब निज देश के राजा ही प्रजा का हक चुराये ।।4।।

न्यायाधीश अब डरते है चोर-उचक्कें और दुष्ट-आताताई से।
तब वो कैसे न्याय दे सत्य के पक्ष में, जब वो खाते रोटी असत्य के पक्ष में।
जब तक होंगे देश में भीरू-डरपोक और कमजोर न्यायाधीश।
तब तक वो न्याय नहीं दे सकते, कमजोर, लाचार, बेवस वाले सत्य के पक्ष में ।
यह तो राजा की शासन-व्यवस्था ढ़ीली, इसलिए तो न्यायाधीश अपनी कोठी भरते है।।5।।

किसानों की स्थिति अब मुझसे बयां नहीं की जाती है।
इन्हें सरकार अपनी भोगों की वस्तु समझती है।
लालबहादुर शास्त्री की का न्यारा हैः-जवान-किसान पे खड़ा हमारा भारत देश है।
जवान देश की सेवा करते है,किसान देश को अन्न खिलाती है।
पर दोनों मरते देशहित में पर क्या कुछ उन्हें देशहित में?
कवि विकास कुमार

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