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“लगता है भूल गये हो”

यूँ गयें  हो  दूर  हम  से  जैसे  कुछ  था  ही   नहीं,
लगता है पुरानी सोहबतों को भी तुम भूल गये हो,

इतना भी आसान नहीं भूला देना किसी को,
जुर्म मेरा है या फिर मगरूर आप हो गये हो,

हर सावन कुछ यादें ताजा हो ही जाती  होंगीं,
यकीन नहीं होता की उन्हें भी तुम भूल गये हो,

सिलवटें  तो  होंगी  ही जहन  में  यादों  की  कुछ,
लगता है उन पर इस्त्री करने में मशगूल हो गये हो,

कशूर    मेरा    होगा    बे-शक    मानता    हूँ   मैं,
फरमान मौत का तुम यादों के लिये क्यों छोड़ गये हो,

मेरी तकदीर में ही नहीं हो तुम ‘हुज़ूर’ आज कल,
या फिर अपनेपन की फिकर में ही फकीर हो गये हो,

हर दर्द की दवा मरहम ही  नहीं होती ‘हुज़ूर’,
लगता है इतनी सी बात भी तुम भूल गये हो,

मेरी पलकों से ही कोई खास रंजिश है तुम्हारी,
या हर एक की नजरों से भी तुम  दूर  गये  हो,

गिले सिकवे तो हो ही जाते हैं मोहब्बत में हर कहीं,
लगता  है  माँफी  की  कदर  भी  तुम  भूल गये हो,

हुज़ूर ! कोई सजा नहीं होती है गमों को बताने से यहाँ,
फिर भी उन्हें छुपानें में इतना क्यों मशगूल हो गये हो,

यूँ  भागते  हो  फिरते  क्यों  दुनियाँ  से  आज  कल,
लगता है तुम भी इश्क के चादर तले रंगीन हो गये हो,

‘हुज़ूर’ जाते वख्त भी तुम मेरे पास ही लगता है,
नायाब   चीज़   अपनी   कोई   भूल   गये    हो,

जिक्र तो होता ही  होगा  हर  निशा में  हर  वख्त़,
उसकी फिक्र में ही लगता है यूँ गमगीन हो गये हो,

चिरागों को जलाते ही नहीं हों रौशनी के डर से आज भी,
या फिर अब उनकी रौशनी में ही चूर हो गये हो ,

अब कुछ अपनी कुछ मेरी मानों मेरी एक फरियाद सुनो,
कुछ प्रयास करता हूँ मैं भी तुम भी तो कुछ याद करो,

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