वह दर्द बीनती है
टूटे खपरैलों से, फटी बिवाई से
राह तकती झुर्रियों से
चूल्हा फूँकती साँसों से
फुनगियों पर लटके सपनों से
न जाने कहाँ कहाँ से
और सजा देती है करीने से
अगल बगल …
हर दर्द को उलट पुलटकर दिखाती है
इसे देखिये
यह भी दर्द की एक किस्म है
यह रोज़गार के लिए शहर गए लोगों के घरों में मिलता है ..
यह मौसम के प्रकोप में मिलता है …
यह धराशाई हुई फसलों में मिलता है …
यह दर्द गरीब किसान की कुटिया में मिलता है…
बेशुमार दर्द बिछे पड़े हैं
लो चुन लो कोई भी
जिसकी पीड़ा लगे कम !
अपनी रचनाओंसे बहते, रिस्ते, सोखते, सूखते हर दर्द को
बीन बीन सजा देती है वह
लगा देती है नुमाइश
कि कोई तो इन्हे पहचाने , बाँटे
उनकी थाह तक पहुँचे …
और लोग उसके इस हुनर की तारीफ कर
आगे बढ़ जाते हैं …