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वादा न सही मगर, एक इंसा को बचाने के लिए आ……..

वादा न सही मगर, एक इंसा को बचाने के लिए आ
के एक बार मिल कर मुझ से, फिर बिछड़ जाने के लिए आ

मुमकिन है अब ये होश भी साथ ने दे मेरा
मुझ बेहोश पर एक चादर चढ़ाने के लिए आ

कुछ तो मेरे पाक-ऐ-मोहोब्बत की जूनून को समझ
के कभी तो तू भी मुझको मानाने के लिए आ

जनता हू अब वो रिस्ता-ऐ-रस्म-ऐ-दिल नहीं है
खैर एक नया रिश्ता ही बनाने के लिए आ

किस किस को बताऊ मैँ, इस दिल के किस्से को
तू मेरे लिए न सही, इस ज़माने के लिए आ

यकीं-ऐ-चिराग अब भी जल रहा है मेरे सीने मैँ
एक आखरी अहसान कर, इसको बुझाने के लिए आ………………….!!

D K

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