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विवशता

कहीं दूर किसी नदी किनारे, दो पल को बैठना है मुझे।
सारी उलझन को धुआं बनते देख,
चैन से दो पल रुकना है मुझे।

सांसे जब घुटन का पिंजरा बन जाए।
बेईमान तकदीर जब ताला बन जाए।
इस बंधन को तोड़,उलझनों को छोड़।
एक नई राह की खोज करनी है मुझे।

कहीं दूर उत्तरी अक्षांशो पर स्वयं चढ़कर,
सुमेरू ज्योति नैनों में मूंदनी है मुझे।
तीव्र इच्छाओं की ज्वाला में,
दो पल निस्वर्थता धू – धू करनी है मुझे।

अक्षांशो से आकांक्षाओं की दूरी तय करनी बाकी है,
कितने ख्याल कितने शब्द मेरे अंजानी सहपाठी हैं ।
अगर इस बांध को तोड़ दूं, अनजाने साथ छोड़ दूं ,
आएगा क्या कोई कभी मुझसे मेरा हाल पूछने?

कहीं दूर मुझे उस और जाना है, जहां सवेरा सबसे पहले होता। डोंग की मदमस्त हवा में,
सुकून की आहे उल्लासित मन भर देता।

हाथों की लकीरों में जो किरणें आ जाएं ।
उन किरणों से जो मोती बन जाए।
अंखियों के चादर पर जो आंसु गिरे थे पहले ।
मोदी से फेर लू उन्हें ,
चांदनी बना दूं हर कपड़े मैले।

उन पग डंडियों पर चलकर कोई गैर जो बन जाए।
उस गैर से पूछो कि मुझे चैन कैसे आए ।
सुकून की किरने जो लाई मैं उधार डॉग से।
उन पत्थरों को क्या भीगा पायेंगे वह अपने तेज से।

कहीं दूर मुझे मावसूनराम की गलियों में खोना है ।
भीगे भीगे पद पर उत्साहित शोर करना है ।
भीनी खुशबू वाली शीतल हवाओं में,
खुद को भींच लू मैं।

अंदर तक जो मन भीग जाए।
सप्तवर्ण की धारा से आसमान जब जगमगा जाए ।
भीतर के अंधेर को शक्र चाप से झिलमिल कर लू।
मन की वाणी को मेह से निर्मल कर लूं।

कहीं दूर किसी जंगल में,
हरियाली के मंगल में,
चिड़ियों की चहचहाहट पर,
वक्त की सरसराहट में,
खो जाने को आना है।
मोह छोड़ जाने को आना है ।
होठों पर दबे शब्दों की निरक्था, खोल कर भूल जाना है ।
बोलकर भूल जाना है।

कहीं दूर जाने को तो मार्ग बहुत है,
मन मस्तिष्क में दबी आशाएं बहुत हैं।
नील समंदर से भी गहरी ये गिराहें,
डूबा देती है भ्रामक कुंडल की राहें।
छिन्न-भिन्न करने की निर्णायक शक्ति
विवशता के चक्रव्यू से ले जाते मुक्ति ।
अंत में रह जाती बस इच्छाएं खाली, बेरंग, खुद को पाने की आशाएं।

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