Site icon Saavan

वो खिड़कियाँ

तुम्हारी चादर में लिपटे
कुछ शक के दाग थे।

तुम मेरी मंज़िल और
तुम्ही हमराज थे।

क्या थे दिन और
क्या लम्हात थे।

कुछ अंजाम और
कुछ आगाज़ थे।

इल्जाम लगा किस्मत और हालात पर हम तो, बचपन से ही बर्बाद थे।

सुबह हुई तो देखा
तकिये पर पड़े सूखे,
अश्कों के दाग थे।

वो खिड़कियाँ अब
बन्द ही रहती हैं ,

जिनके दीदार के कभी
हम मोहताज़ थे।

Exit mobile version