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शाखों के पीले पत्ते

शाखों के हरियाले पत्ते,

जो हैं आज पीत हुए,

शीत-ग्रीष्म सहते -सहते,

बदरंग और अतीत हुए,

उन पतझड़ के नीरस ,

पत्तो में भी था आस कभी,

जिन शबनमी अश्को का,

नयनो में था आवास कभी,

बिखर चुके हैं सूख गए हैं,

हाँ उन पर भी था नाज़ कभी,

जिन स्मृतियो से हो जाते हैं,

सजल नयन अभी,उनमें भी,

सजते थे सपने,जगते थे प्यास कभी ,

जिन स्वरो की मादकता का,

होता नहीं आभास अभी,

देती थी वो व्याकुल मन को,

रसमय संगीत का आभास कभी,

वो प्रेम ज्ञान भ्रमित करती,

जो हँस कर देती हूँ टाल अभी,

हाँ, संजो लेती थी अनमोल जानकर,

उन बातों को मैं कभी,

पतझड़ में शाखों से पीले पत्ते,

जैसे गिरते झर-झर कर,

छॉट दिया मैंने अन्तर से,

पीले स्मृतियो के सब दल,

कितने सावन और बसंत,

आते-जाते जीवन में,

फिर एक तुम्हीं से क्यों,

मन विहवल छाते क्यों अनन्त घन,

बनना-मिटना तो है एक क्रम,

शाखों पर फिर पतझड़ का क्या ग़म ।।

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