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‘शामिल तो ना था’

रुसवा हो गयीं हो तुम या फिर समझ मैं नहीं पाया ,
यूँ नखरें दिखाना तिरी अदाओं में तो शामिल ना था,

तड़प गर मैं रहा हूँ तो खुश तो तुम भी नहीं होगे,
यूँ रूठ कर जाना तिरी अदाओं में तो शामिल ना था,

बहुत हुआ ये बचपना आ अब मिल ही लेते हैं,
ये जाबिराना हरकतें तिरी उल्फत में तो शामिल ना था,

तिरी मय का सुरूर तो अभी चढ़ा भी ना था ढ़ग से,
गुज़रगाहों में यूँ तन्हा छोड़ के जाना मुनासिब तो ना था,

तुम्ही थे या तेरा कोई अक्स मिला था मुझसे,
भरी महफिल में यूँ मुह मोड़ के जाना मुनासिब तो ना था,

तिरी और मिरी उन मुसलसल यादों का क्या होगा,
दरवाजें पर दस्तक दे कर लौट जाना मुनासिब तो ना था,

तकल्लुफ में अगर हो तुम तो तड़पेगा जहाँ सारा,
यूँ बातों बातों में रूठ जाना तेरी आदत में तो शामिल ना था,

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