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शीत का पूर्णचन्द्र

ओ शीत से आविष्ट निशा के घोर तिमिर,
व्योम के पथ,
इस शुक्ल पक्ष
लौटा वह एक बार फिर !
लेकिन, क्या कौतुक ?
पीतवर्णी हिमाशिक्त रश्मियों के
उतप्त होने का भ्रम,
चतुर्दिश व्याप्त शीतलता में
ठिठुरता, एकाकी यह पूर्णचंद्र !
टुट गया एक प्रतिमान,
शीतल होने का अभिमान
अपनी ही प्रभा में निष्प्रभ,
देख क्लांत कलानिधि को-
लिपटने को आतुर कई अभ्र।
कौन जाने बादलों से घिर
कम्पित ही था वो, या स्थिर ?
व्योम के पथ
इस शुक्ल पक्ष,
क्यों लौटा वह एक बार फिर ?

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