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श्रृंगारी

लिखा था नाम जो दिल की जमीं पर पढ़ रही हूं मैं
कि उनका रूप ही हर आईने में गढ़ रही हूं मैं

मेरी हर शायरी में अब अलग ही मोजिजा सा है
सुनाती हूं गज़ल यूं जैसे कलमा पढ़ रही हूं मै।

हैं उनके नैन जैसे सीप में मोती चमकता हो
रूप ऐसा कि काली रात में चंदा चमकता हो ।

श्यामल केश जब मस्तक को उनके चूम लेते हैं
जैसे दूधिया पुष्पों पे भंवरे झूम लेते हैं ।

अधर जैसे गुलाबी पुष्प ने पाई हो तरुणाई
तिमिर शय्या पे जा लेटा उगी पूरब से अरुणाई।

वो मेरे साथ ना होकर भी यूं महसूस होते हैं
जैसे चांद सूरज आसमां में साथ होते हैं ।

बुझी सुलगी मगर इस राख में अब भी है चिंगारी
इसी कारण विरह के गीत भी लगते हैं श्रृंगारी।

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