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संतान

हर संतान है विशेष यहां
अवसर भी भरमार है
मालिक की नई रचना
पुराने से हमेशा खाश है

फिर भी हर पिता को
पुत्र में कमी नजर आता है
मंदिरों में सर झुका पाता जिसको
उस ईश्वर को ही नित सताता है

धार्मिक खुद को बतलाते हैं
संदेश पकड़ न पाते हैं
गंगा के पास जब जाते हैं
उसका अंश ही तो लाते हैं

मानसिक क्षमता दुर्बल शायद
बीती बातों को भुलाते हैं
इसलिए हर पिता ही लगभग
अपने नौनिहालों को सताते हैं

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