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समर्पण…

बाती की इक रोज ,दीए से लड़ाई हो गयी
मगरूर हुई बाती खुद पर, लगी दीए पर भड़कने
मैं जलकर खाक हो जाती हूँ, और
तारीफे बटोरता है तू ,
नहीं जलूंगी तेरे साथ अब ओर
तय कर लिया मैंने ,
तू ढूंढ ले कोई ओर अब नहीं रहना संग तेरे !
चुप-चाप सुनता हुआ दिया अब बोल उठा
तू जलकर खाक हो जाती है
तेरी कालस तो मैं ही समेटता हूँ
तू जलती है जब-जब तेरी
तपिस तो मैं ही सहता हूँ !
कैसे ढूंढ लू कोई ओर
मुझे कोई और मिलेगा नहीं ,
तुझे कोई और जचेगा नहीं
बाती मुस्कुरा गईं
जिसके लिए बनी थी, उसी मे समा गईं !

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