सम्भाल ले ऐ – ख़ुदा , एक लम्हे के लिए मुझे….
अब मैं हार रहा हूँ …..
तू ही बता मेरे साहिब , मैं क्यों ये जिंदगी तन्हा गुजार रहा हूँ …
तूने साज़ किया चेहरे पर , मुस्कराहट का ….
लेकिन मैं क्यों , मायूसी स्वीकार रहा हूँ …..
जिल्ले – सुभानी कहता हैँ ये जग मुझे , अल्फाज़ो का ….।
फिर मैं क्यों ख़ुद को ख़ामोशी में उतार रहा हूँ ….
इक रोज़ मालूम हुआ , मयख़ाने में मय बाँट लेती है रंज….
मैं , ये कड़वा सच भी नकार रहा हूँ …..
जब देखता हूँ माँ – बाप की नजरों में , तू दिखाई दे ….
लेकिन कुछ रोज़ से , बनता जा काफ़िर रहा हूँ …
अब तो कुछ और आब बढ़ा दे चेहरे की रौनक …
क्योंकि हर दफ़ा महफ़िल – ए – रंज में , मैं उजागर रहा हूँ …
अधूरी साँसे हैं , ख्वाईश एक रुख़ – ए – रोशन से बेइंतहा इश्क़ पाने की….
लेकिन मैं क्यों , मन ही मन , मन को मार रहा हूँ ….
उठ चूका हैं , नहीं उठना था , जो सैलाब दिल में ” पंकजोम प्रेम “….
क्योंकि लहर – ए – उल्फ़त पर एक मरतबा फिर मैँ लहर रहा हूँ…