कल्पना का कला की छाया नहीं थी
सत्य पांव पसार रहा था
रण भूमि की दहलीज पर जाकर
दुश्मन को ललकार रहा था
दुश्मन की आंखों में देखें
कितनी होशियारी है
पीठ पर बिस्तर बांध लिया
जंग जाने की तैयारी है
लिपट जाता था पिता से बेटा
कभी मां का पल्लू भिगोता था
मां बाबा फिर क्यों जाते हैं
कह कह कर वह रोता था
व्याकुल होती है भ्याता
बिरहा की पीर सताती है
रण मे प्रिय ना विचलित हो
वो असू घूप पी जाती है
दोनों हाथों को रखी थी सिर पर
मां आशीष देती थी
बिस्तर से उठ सकती ना थी
नयन में असू पिरोती थी
पूरी निष्ठा से देता है
भारत माता का पहरा
मेरी अर्थी को भी कंधा देना
जब टूटे सांसों का घेरा