सामूहिक विवाह का आयोजन था
कम खर्च में–ज़्यादा निपटें
यही असली प्रयोजन था
चारों ओर हा….हा……..कार मचा था
“ मे……………..ला ” — सा लगा था
वर—वधू मंडप में सहमे से खड़े थे
कुछ कानूनन ना-बालिग थे , कुछ बहुत बड़े थे
सारी बस्ती प्रतीक्षा में सुलग रही थी
हवनकुण्ड में पवित्र अग्नि धधक रही थी
पंडितजी का मंत्रोच्चार ज़ारी था………..
: शुभ घड़ी पर एक–एक पल भारी था
लगन का समय निकला जा रहा था ………..
नेताजी का काफ़िला चल दिया था….बस, आ रहा था
प्रतीक्षारत् दूल्हे–उचकाकर कूल्हे , भावी दुल्हन को देख शर्मा रहे थे
: दूसरों की देखकर गश खा रहे थे
दुल्हने बेचारी ! इस भीड़ से रोमांचित् थीं ……………………………
गैरों के धक्के तो ‘खू……ब’ खा रही थीं, लेकिन,’पिया–स्पर्श’ से वंचित थीं
नेताजी शान से मंच पे विराजे , नेपथ्य में जोर से बजने लगे बाजे
किसी ने बैंडमास्टर को नींद से जगाया था,
———‘‘मैं हूं ; ‘डा….न’ ’’ उसने तबियत से बजाया था
पंडित भी तुरन्त हरकत में आ गया, सातों वचन एक सांस में सुना गया
बैंड पर मन-भावना धुन बज रही थी , ‘‘ गली-गली मेरी अम्माँ ’’सज रही थी
एक ओर सोयाबीन की कढ़ाही में पूरियां मचल रही थीं
दूसरी ओर दाल में सनी बरफियां कुछ कह रही थीं
गुलाबजामुन पत्तल पर लुढ़क रहे थे ,
भाई लोग ! जम के रायता सुड़क रहे थे
एक तरफ ‘लाड़ा—लाड़ी’ सावधान की मुद्रा में तैयार खड़े थे
दूसरी तरफ दक्षिणा-बिना पंडितजी भी, ’स्वाहा’ पर ही अड़े थे
अब तक नेताजी जा चुके थे , ‘बाज—-लोग’ खा-खाकर ‘अघा’ चुके थे
पंडितजी भी लगन लगा चुके थे, वर–वधू कुछ और ‘करीब’ आ चुके थे
दुल्हन की विदाई का व़क्त पास आ रहा था, बैंडवाला ‘‘बाबुल की दुआऐं ’’बजा रहा था
सभी मेहमान अपना सामान जमा रहे थे ,” दूल्हे : तप चुके थे”, शरारत से मुस्कुरा रहे थे
सबको घर जाने की जल्दी थी , मुरझा रही दुल्हन की हल्दी थी
एक तरफ हर आंख में आंसू थे , दूजी ओर आईडिये हनीमून के धांसू थे
धीरे धीरे सारा मज़मा उखड़ने लगा, कविता अनोखी थी ! लो,कवि तो जमने लगा !!
कौन कहता है ? …………… ये कविता कोरा व्यंग्य है
अरे भाई ! सामाजिक रंग में, थोड़ी मस्ती भरी भंग है
वास्तव में ; सामूहिक – विवाह – आयोजन
समय की मांग है …………..आज की सच्चाई है
मैं स्वीकारता हॅूं – यह एक सामाजिक अच्छाई है
धन्य हैं ‘ वे लोग ’ जो इसका बीड़ा उठाते हैं
लाड़ली- लक्ष्मियों को दहेज़-रूपी अभिशाप से बचाते हैं
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