कब कोई सिपाही ज़ंग चाहता है।
वो भी परिवार का संग चाहता है।
पर बात हो वतन के हिफाजत की,
न्यौछावर, अंग-प्रत्यंग चाहता है।
पहल हमने कभी की नहीं लेकिन,
समझाना, उन्हीं के ढंग चाहता है।
बेगैरत कभी अमन चाहते ही नहीं,
वतन भी उनका रक्त रंग चाहता है।
खौफ हो उन्हें, अपने कुकृत्य पर,
नृत्य तांडव थाप मृदंग चाहता है।
ख़ून के बदले ख़ून, यही है पुकार,
कलम उनका अंग-भंग चाहता है।
देवेश साखरे ‘देव’