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सिसकता बचपन..

तन्हा चल रहा था सड़क पर मैं,

तब देख रहा था मुझकों, “बाशिंदा उसका” ,

बड़ा मासूम सा वो,तबस्सुम कहीं खोई हुई,

निगाहे तलबगार, और चेहरा उदास था उसका,

जिस हाथ में “होनी थी कलम”, उसमे था?

एक छोटा, टूटा सा कटोरा उसका,

कहते है जिसे, नबाबों की उम्र,

गरीबी की आग मै झुलसता, “ये बचपन था उसका”,

हमउम्र यारों को मौज उड़ाते देख, “जी ललचा”,

पर हर शौक का क़त्ल करता, “बेरहम मुक़द्दर था उसका”,

उम्मीद भरी निगाहों से आया वो मेरे करीब,

और मेरी चंद दौलत को पाकर,

 “लाखो दुआए देता सच्चा दिल था उसका”,

©अंकित आर नेमा.

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