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हवा के नर्म परों पर सलाम लिखती हूँ

हवा के नर्म परों पर सलाम लिखती हूँ
गुलों की स्याही से जब जब पयाम लिखती हूँ

बड़ा सहेज के रखती हूँ तेरे खत सारे
जो सुब्हो शाम मैं तेरे ही नाम लिखती हूँ

जिसे मैं दुनिया के डर से न कह सकी अब तक
वही फसाने ख़तों में तमाम लिखती हूँ

ज़ुनूने इश्क में तेरे मैं खो चुकी इतनी
जो बेखुदी में सवेरे को शाम लिखती हूँ

नहीं की मयकशी ता उम्र ,रिंद हूँ फिर भी
इसलिए तेरी आँखों को जाम लिखती हूँ

मिरे करीब से जिस वक्त तुम गुज़रते हो
तुम्हारी चाल को मस्ते खिराम लिखती हूँ

कलम की नोक पे आता है नाम ही तेरा
मैं जब भी कोई अछूता कलाम लिखती हूँ

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