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हो अवध सी रामनगरी और रघुबर से हों साजन

कह रहा है मन हमारा
क्यों दुखी संसार सारा
एक निज स्थल हो ऐसा
स्वर्ग से लगता हो प्यारा
ना हृदय में वेदना हो
ना व्यथित मन साधना हो
ना हो कोई रुष्ट हर्षित
ना कोई पीड़ित अकारण।

हो अवध सी रामनगरी
और रघुबर से हों साजन।

माता कौशल्या सी मईया
और लक्ष्मण सा हो भईया
उर्मिला सी देवरानी
पार हो जायेगी नईया
हो पिता दशरथ के जैसे
हो फलित ये पुण्य कैसे ?
मैं बनूं गृह लक्ष्मी उनकी
और कहलाऊं सुहागन।

हो अवध सी रामनगरी
और रघुबर से हों साजन।

रूप कंचन कांति ऐसे
कौमुदी छिटकी हो जैसे
नैन हों जैसे पयोनिधि
रदनच्छद शतपत्र जैसे
मान मर्यादा भी समझे
नारी का अस्तित्व समझे
एक ही छवि हिय विराजे
रज कमल की मैं पुजारन।

हो अवध सी रामनगरी
और रघुबर से हों साजन।

रूप छवि ऐसी सवारूं
साधु भी विपदा में डारूं
ओढ़ कर मर्यादा कुल की
राम पद पंकज पखारूं
मन की वृत्ति जान लूं मैं
प्रिय कथन भी मान लूं मैं
हो फलित पुष्पित वो नगरी
गूंजे किलकारी भी आंगन।

हो अवध सी रामनगरी
और रघुबर से हों साजन।

प्रज्ञा शुक्ला, सीतापुर
Kavyarpan

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