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ग़ज़ल

ये मदहोश शाम और तन्हाई का आलम

अपनों के बारे में न सोचते तो क्या सोचते

 

करीब-ए-मर्क़ है फिर भी अकेले इसलिये

खबरी के बारे में न सोचते तो क्या सोचते

 

हुआ कभी जो गुमाँ दर्द ने सँवारा है,तो

उस फ़रिश्ते को न सोचते तो क्या सोचते

 

ठोकर खाया था राह-ए-जिंदगी में तो

दिल-ए-पत्थर न सोचते तो क्या सोचते

#VIP~

‘विपुल कुमार मिश्र’

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