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ज़िंदगी

ज़िंदगीज़िंदगी Tragedy 1 मिनट 273 0
vivek netan © Vivek Netan
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#3171 in Poem (Hindi)
#305 in Poem (Hindi)Tragedy
कुछ इस तरह से मुझ से नाराज़ हो गई ज़िंदगी

गाँव की खुली गलियों से शहर ले आई ज़िंदगी

छूट गई पीछे कहीं वो ठंडी खुशगवार सी हवा

आसमां को ढके धूल के बादल में ले आई ज़िंदगी

वो रातों की नींद वो सुकून प्यारी सी सुबह का

दो पैसों के लालच में सब कुछ बेच आई ज़िंदगी

हर तरफ दोस्त थे रिश्तेदार थे हाथ थामने वाले

लाखों की भीड़ में तन्हा जीने ले आई ज़िंदगी

चाहत थी कुछ कर गुजरने की नाम कमाने की

उसी उलझन में खुद ही कहीं उलझ गई ज़िंदगी

रह गया पीछे वो चिड़ियों, तोते से भरा आँगन

उलझे धागों और कटे पतंगों के बीच ले आई ज़िदगी

एक आँसू पोछने दौड़ पड़ता था गाँव सारे का सारा

अब मुझे अकेला मेरे हाल पर छोड़ देती है ज़िंदगी

छूटे वो आमों के और अमरूदों के खुले खुले बाग़

लोहे के गेटों के पीछे छुप के रहने ले आई ज़िंदगी

हर दुःख हर सुख में शरीक होता था हर कोई

लगता था की माँ की तरह प्यारी मीठी है ज़िंदगी

अब हर तरह आवाज़े है पर साथ नहीं है कोई

अब तो लगता है जैसे सौतेली माँ घर ले आई ज़िंदगी

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