अब कहाँ वो ज़माना रहा जाँ लुटाने का,
रिवाज़¹ नहीं अब रूठे को मनाने का।
किसके हवाले करें आज दिल हम अपना,
गुज़र गया वह वक़्त दिल लगाने का।
हदीस²-ए-गम-ए-यार सुनेगा अब कौन,
नया रिवाज़ है बज़्म³ से उठ जाने का।
रब्त4 सब संग-ओ-ख़िश्त 5 हो गए हमारे,
कहाँ वो सुरूर6 रहा अब करीब आने का।
फ़ज़ा7 बेनूर अब, हर सितारा है ग़ुम कहीं,
वक़्त है तारीकी-ए-क़फ़स8 में जाने का।
1. परंपरा; 2. किस्से; 3 महफ़िल; 4. संबंध; 5. पत्थर और ईंट; 6. खुशी;7. माहौल; 8. पिंजरे का अंधेरा।
यह ग़ज़ल मेरी पुस्तक ‘इंतज़ार’ से ली गई है। इस किताब की स्याही में दिल के और भी कई राज़, अनकहे ख़यालात दफ़्न हैं। अगर ये शब्द आपसे जुड़ पाए, तो पूरी किताब आपका इंतज़ार कर रही है। – पन्ना