“वो परछाई”
रोशनी को चीर वही आकृति सहसा निकल गयी दरवाजों के मध्य और कहीं पीछे भी एक परछाई सी फिर खिल उठी कुछ धुंधली चांदनो सी एक घना कोहरा स्वयं को असहज दर्शाता शून्य वहां घर कर गया हर ओर टटोलते हुए कुछ अनकहे टूटे शब्द एक और लम्बी खामोशी यहां ठहरी कभी रही थी संग मेरे मेरे अन्तर्मन में डूब कर टूट कर एक हो चले थे दो से हम जब मैं और मेरी परछाई । »