“वो परछाई”
रोशनी को चीर वही आकृति सहसा निकल गयी दरवाजों के मध्य और कहीं पीछे भी एक परछाई सी फिर खिल उठी कुछ धुंधली चांदनो सी…
रोशनी को चीर वही आकृति सहसा निकल गयी दरवाजों के मध्य और कहीं पीछे भी एक परछाई सी फिर खिल उठी कुछ धुंधली चांदनो सी…
नत मस्तक शीश झुकाए कतारबद्ध खडा हूं मैं लिए लघु हृदय वीरों संग दौड चला घावो की परवाह किए बिना तत्पर हूं कुछ करने को…
ज़िन्दगी मोम सी जलती रही पिघलती रही हर पल इक नया रूप लिए बनती रही बिखरती रही नयी अनुभूति सी हर एक क्षण हर दिशा…
मैं नेत्रहीन नहीं आंखे मूंदे बैठा हूं मैं भी अवगत था सत्य से पर विवश रहा सदा अन्तर्मन मेरा क्या मिलेगा व्यर्थ में लड़ने से…
कायर ——- दरवाजे पर आहट हुई अधखुला दरवाजा खुला परिचित सामने खड़ा आस्तिने चढाए पैर पटकता लौट गया बोलकर कुछ अनसुने,अनकहे शब्द एक चुप्पी और…
निवेदन ——– ऐ पथिक राह दिखा मुझे मुख न मोड़ चल साथ मेरे भारत आजाद कराना है धर्म मेरा ही नहीं तेरा भी है भयभीत…
हम स्वतंत्र होगे एक दिन ये आस लिए कुछ प्रण किया था आह! क्या थे वो क्षण जब मैं नहीं हम थे सब ध्येय एक…
तीन पहर बीत चले चांद कुछ दूर हुआ कुछ मिल गया तम में कुछ छूटा रह गया आकृति बिखर गयी धुंधली सी विक्षिप्त सी फैल…
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