कविता:- सफर
जीवन के इस सफ़र में प्रकृति ही है जीवन हमारा, बढ़ती हुई आबादी में किंतु हर मनुष्य फिर रहा मारा-मारा॥ मनुष्य इसको नष्ट कर रहा है जिंदगी अपनी भ्रष्ट कर रहा है, करके नशा देता भाषण क्या नहीं जानता नशा नाश का कारण॥ मान प्रतिष्ठा या चाहे हो शोहरत है निर्भर सब धन दौलत पर, मान प्रतिष्ठा चाहे हो शोहरत है निर्भर सब धन दौलत पर, बनकर ब्रहमचारी सामने इस जग के निगाहें रखता हर औरत पर॥ हर प्राणी ईश्वर की रचना फिर... »