जिंदगी अंधेरों में तो हमें गँवानी थी,
रोशनी दो पल की जो कमानी थी।
जिन्हें हमने ख़ुद से भी करीब माना,
वो शख़्सियत असल में बेगानी थी।
रैली के जमघट 1 ने जाम2 किए रास्ते,
उसे बीमार माँ अस्पताल ले जानी थी।
आ गया है बचपन, बुढ़ापे के दर पर,
चार दिन की थी हमारी जो जवानी थी।
वो उठ चल दिए महफ़िल से पहले ही,
जिनको ये ग़ज़ल आज हमें सुनानी थी।
1. भीड़; 2. रुकावट।
यह ग़ज़ल मेरी पुस्तक ‘इंतज़ार’ से ली गई है। इस किताब की स्याही में दिल के और भी कई राज़, अनकहे ख़यालात दफ़्न हैं। अगर ये शब्द आपसे जुड़ पाए, तो पूरी किताब आपका इंतज़ार कर रही है। – पन्ना