Ajit Singh
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Ajit Singh commented on the post, द्रौपदी की प्रतिज्ञा 1 month, 1 week ago
Thanks Vinay ji
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Ajit Singh commented on the post, द्रौपदी की प्रतिज्ञा 1 month, 1 week ago
Thanks Satish ji
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Ajit Singh commented on the post, द्रौपदी की प्रतिज्ञा 1 month, 1 week ago
Thanks
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Ajit Singh commented on the post, द्रौपदी की प्रतिज्ञा 1 month, 1 week ago
My 1 more poem on Yudh. It is published on Sahitya Manjari.
युद्ध की विभिषिका
गिरी के भीषण भार से, भयभीत ना संहार से, मैं तब भी था, मैं अब भी हूँ, मैं समर हूँ डिगता नहीं ।
मैं ऊर्ध्व हूँ, मैं मूल हूँ, अज्ञानता की भूल हूँ ।
मैं घना अंधकार हूँ, बढ़ता हुआ संहार हूँ ।।
सीता के अपहरण में हूँ, द्रौपदी के चीरहरण में हूँ ।
अर्जु…[Read more]
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Ajit Singh commented on the post, द्रौपदी की प्रतिज्ञा 1 month, 1 week ago
Thanks, Anu Ji for liking my poem. Your comments put me in awe smile. It is a big compliment if my poem reminds you of Dinkar Ji. He was by far the greatest poet India ever had.
Read my poem which is full of Veer ras. You can have access to it on Google with the title name.एकलव्य की गुरु-दक्षिणा
हे गुरु करो आदेश अभी मैं तत्पर शीश चढाने को…[Read more]
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Ajit Singh commented on the post, द्रौपदी की प्रतिज्ञा 1 month, 1 week ago
Thanks, Geetaji. I have written many such poems (Hindi) and stories in English that elaborate the enormous grandeur and majestic beauty of Women. My stories also reflect upon the contribution and sacrifices women make for the greater good of society.
Thanks again and do read my poem बिरहन की पुकार. If you type it in google you can have acc…[Read more] -
Ajit Singh wrote a new post, द्रौपदी की प्रतिज्ञा 1 month, 1 week ago
# द्रौपदी की प्रतिज्ञा
द्रौपदी का परिचय-
आ खींच दुशासन चीर मेरा, हर ले मेरा सौंदर्य सजल ।
आ केश पकड़ कर खींच मुझे, अपना परिचय दे ऐ निर्बल ।
मैं राजवंशिनी कुल कीर्ति हूँ, गांधारी हूँ मैं कुं […]
वाह एक सार्थक और ओजस्वी रचना….दिनकर जी की रश्मिरथी की याद हो आयी। धन्यवाद इस रचना के लिए…🙏
Thanks, Anu Ji for liking my poem. Your comments put me in awe smile. It is a big compliment if my poem reminds you of Dinkar Ji. He was by far the greatest poet India ever had.
Read my poem which is full of Veer ras. You can have access to it on Google with the title name.
एकलव्य की गुरु-दक्षिणा
हे गुरु करो आदेश अभी मैं तत्पर शीश चढाने को ।
अंगुष्ठ है मेरा तुच्छ भेंट, कहो राज्य जीत के लाने को ।
मैं निपुण धनुर्धर धरती का, ये भेद तुम्हे बतलाता हूँ ।
दे दो अवसर मुझे आज अभी प्रत्यक्ष तुम्हे दिखलाता हूँ ।।
मैं दन-दन् बाण चलाता हूँ, वीरों के दिल दहलाता हूँ ।
सूरज भी डर छिप जाता है, मैं ऐसा शौर्य दिखाता हूँ ।
है किसके बाणों में वो दम, जो काट सके मेरे बाणों को ।
इस जग में वीर कहाँ कोई, जो हर ले मेरे प्राणों को ।।
रणभूमि सिंह सा जाता हूँ, मैं यम से आँख मिलाता हूँ ।
सेनायें भी थर्राती हैं, ऐसी प्रत्यंचा चढ़ाता हूँ ।
मैं कुरु का वंशज भले नहीं, पर कुरु सदृश संग्रामी हूँ ।
मुझमें बसता है रण कौशल, मैं रणक्षेत्र का स्वामी हूँ ।
भीष्म सा जग में वीर नहीं, ये सत्य अभी झुठलाता हूँ ।
आज्ञा का दो आशीष मुझे, मैं भीष्म से द्वंद मचाता हूँ ।।
बाणों से आग धधकते हैं, बाणों से मेघ बरसते हैं ।
दम-दम चमके बिजली घन में, मैं ऐसा बाण चलाता हूँ ।
गंगाा का पथ जो रोक सके, बाणों का बाँध बनाता हूँ ।
गुरु द्रोण चुनो मुझे शिष्य आज, मैं स्वर्ग जीत के लाता हूँ ।।
वो वीर ही क्या जो लड़ा नहीं, संग्राम वेदी पर चढा नहीं ।
वो वीर नहीं कायर है वो, पग जिसका रण में पड़ा नहीं ।।
वीरों का ऐसा हस्र ना हो, यूँ वीर कोई निशस्त्र ना हो ।
कोई वीर ना बांधे बंधन से, वीरों का सूर्य कभी अस्त ना हो ।।
हे गुरु सूनो विनती मेरी, मुझको इक प्रबल चुनौती दो ।
धरती का उत्तम वीर चूनो, मुझको मेरा प्रतिद्वंदी दो ।।
वीरों का एक ही परिचय है, वीरों की जाती नहीं होती ।
सामर्थ्य राजसी रत्न नहीं, बिन जीते ख्याति नहीं होती ।
है किसमें बल जो साध सके, मुझको बाणों से बाँध सके ।
धरती पर कौन धनुर्धर है, जो मेरी प्रत्यंचा काट सके ।।
हे गुरु कहो क्या योजन है, मैं किसके जय का संकट हूँ ।
किसके सिर मुकुट सजाना है, क्या मैं कुरु वंश का कंटक हूँ ।
ये शस्त्र मेरे आराध्य प्रभु, बिन लड़े ये जीवन व्यर्थ ना हो ।
ऐसा जीवन किसकी मंशा, जिसमें युद्ध का अंश ना हो ।
निज लहू मुझे धिक्कारेगा, ये शौर्य मेरा चित्कारेगा ।
जयकारा करने वाला जग, मुझे नीची आँख निहारेगा ।
गुरु मुझको ऐसा पाप ना दो, ऐसा भयंकर शाप ना दो ।
गुरु कर देना संहार मेरा, पहले मुझे रण का अवसर दो ।
स्वेच्छा से आज मरूँगा मैं, पर मेरे बल का उत्तर दो ।।
उद्घोष करो, जयघोष करो, कि मुझसा वीर अजन्मा हूँ ।
हे गुरु आज पहचान करो, क्या मुझसा शिष्य कभी जन्मा है ।।
धरती के वीर इकट्ठे हों, बन खड़े हो सामने प्रतिद्वन्दी ।
है ऐसे युद्ध की चाह मुझे, जहाँ बाँण गिरे बन रणचंडी ।।
हे गुरु मुझे बतला दो तुम, इतिहास मुझे क्यों याद करे ।
क्या है मेरी उपलब्धि वो, जिस पर ये जग संवाद करे ।
एकलव्य वीर था जग माने, ऐसी कोई युक्ति दे दो ।
हे गुरु करो स्वीकार मुझे, चरणों में मुझे भक्ति दे दो ।।
हे गुरु मुझे अफसोस नहीं, अंगुष्ठ दान का शोक नहीं ।
गुरु द्रोण समर्पित तन मेरा, घनघोर है हर्षित मन मेरा ।
गुरु अभी दक्षिणा देता हूँ, अंगुष्ठ काट के देता हूँ ।।
अजीत कुमार सिंह
My 1 more poem on Yudh. It is published on Sahitya Manjari.
युद्ध की विभिषिका
गिरी के भीषण भार से, भयभीत ना संहार से, मैं तब भी था, मैं अब भी हूँ, मैं समर हूँ डिगता नहीं ।
मैं ऊर्ध्व हूँ, मैं मूल हूँ, अज्ञानता की भूल हूँ ।
मैं घना अंधकार हूँ, बढ़ता हुआ संहार हूँ ।।
सीता के अपहरण में हूँ, द्रौपदी के चीरहरण में हूँ ।
अर्जुन के अमोघ प्रण में हूँ, कुरुक्षेत्र के हर रण में हूँ ।।
शुंभ मैं, निशुंभ मैं, शिव का धधकता लिंग मैं ।
मैं हार में, संहार में, मैं हर तरफ हाहाकार में ।।
बालि का अतुलित बल हूँ मैं, शकुनि का बढ़ता छल हूँ मैं ।
अनुराग में मैं द्वेष हूँ, साधू बना लंकेश हूँ ।।
मंदोदरी के करुण विलाप में, गांधारी के प्रलाप में ।
मैं दिन में हूँ, मैं रात में, मैं अट्टहास विलाप में ।।
चाणक्य के अपमान में, द्रौपदी के लुटते मान में ।
निर्धन की बढ़ती कुण्ठा में, गांडीव की चढ़ती प्रत्यंचा में ।
मैं तब भी था, मैं अब भी हूँ, मैं समर हूँ डिगता नहीं ।।
प्रस्तुत सदा हर युद्ध में, वीरों के घटते बुद्ध में ।
मैं भोग में, मैं विलास में, मानव तेरे इतिहास में ।।
मारीच की मैं मरीचिका, विध्वंश की मैं विभिषिका ।
अशोभनीय मैं शोक हूँ, कलिंग में लड़ता अशोक हूँ ।
अविराम हूँ, मैं अनन्त हूँ, मानव का बढ़ता अन्त हूँ ।
मैं तब भी था, मैं अब भी हूँ, मैं समर हूँ डिगता नहीं ।।
कुरुक्षेत्र का जब रण सजा, अट्टहास कर मैं हँसा ।
निर्बुद्ध है ना जानते, अपने-अपनों को न मानते ।
रणबांकुरे तन के खड़े, अपने-अपनों से ही लड़े ।
चहुमुख भयंकर शोर था, गांडीव का वो जोर था ।
कटते हुए नर शीश थे, ईश्वर भी कुछ भयभीत थे ।
हैरान मैं हॅसता रहा, कुछ हो रहा यूँ युद्ध था ।
वीरों के प्रज्वलित तेज से, छुपता हुआ नभ सूर्य था ।।
है असत्य की मैं रोया नहीं, अपनों को मैंने खोया नहीं ।
अभिमन्यु के संहार पर, द्रौपदी के लुटते न्यार पर ।
रोया मैं सिसकी मार के, जग में बढ़े संहार पर ।।
थी खोज मेरी अमरता, भगवान सा मैं बन चला ।
मानव ठहर क्या कर रहा, भगवान मुझको ना बना ।।
अब थक गया इस शोर से, मैं चाहता हूँ अब बूझुँ ।
स्वाहा रूके, निर्भय पले, मन से ना कोई कठोर हो ।
पर जोर है कुछ अनभला, वो सींचता जलती शिखा ।
है उसके मन का अडिग स्वर, वो चाहता है मैं जीऊँ ।।
युद्ध के इस भोग से, ईश्वर मुझे अब मुक्ति दे ।
अस्तित्व मेरा ना रहे, वरदान दे, वो शक्ति दे ।
हे दीनबन्धु, हे नीति-निधान, धरती मांगे है अभयदान ।
धरती करुणा की प्यासी है, भागीरथ की अभिलाषी है ।
चछु के पट अब खोलो तुम, हे नीलकंठ कुछ बोलो तुम ।
हे गलमुण्ड घट-घटवासी, हे निर्विकार, हे अविनाशी ।
जग का अंधियारा दूर करो, हे पूण्य प्रकाश, हे हिमवाशी ।।
नारी का प्रतिनिधित्व करती हुई द्रौपदी की प्रतिज्ञा, विलाप और चेतावनी देती हुई अति सुंदर और उत्कृष्ट रचना
Thanks, Geetaji. I have written many such poems (Hindi) and stories in English that elaborate the enormous grandeur and majestic beauty of Women. My stories also reflect upon the contribution and sacrifices women make for the greater good of society.
Thanks again and do read my poem बिरहन की पुकार. If you type it in google you can have access to this poem.
Sure Ajit ji.
Thanks
बहुत खूब, उत्तम अभिव्यक्ति।
Thanks Satish ji
बहुत खूब
Thanks Vinay ji