द्रौपदी की प्रतिज्ञा

January 24, 2021 in हिन्दी-उर्दू कविता

# द्रौपदी की प्रतिज्ञा

द्रौपदी का परिचय-

आ खींच दुशासन चीर मेरा, हर ले मेरा सौंदर्य सजल ।
आ केश पकड़ कर खींच मुझे, अपना परिचय दे ऐ निर्बल ।
मैं राजवंशिनी कुल कीर्ति हूँ, गांधारी हूँ मैं कुंती हूँ ।
अतुलित हूँ मैं अभिमानी हूँ, ना भूल अरि मैं रानी हूँ ।।

है अग्निकुण्ड मेरा उद्भव, मुखमण्डल का ये तेज देख ।
सौंदर्य ना मुझसा जग में द्वय, नैंनो में रति का वेग देख ।
जग में मुझसा सौंदर्य कहाँ, है मुझसा अतुलित शौर्य कहाँ ।
है अनल समाये अंग मेरे, मुझसा प्रचंड विध्वंश कहाँ ।।

द्रौपदी हूँ सुन मैं नारी हूँ, ना सोच की मैं लाचारी हूँ ।
मुझसे पलता है जग सारा, मुझमें है विष-अमृत धारा ।
मुझमें कुरुक्षेत्र समाया है, मुझमें करुणा की रस-धारा ।।

है यौवन मेरी मृगतृष्णा, मुझे पाने का ना स्वप्न देख ।
हठधर्मी तू हठधर्म त्याग, नतमस्तक हो घुटनों को टेक ।
ना भूल कर मुझे साधने की, सोच ना हद लाँघने की ।
बंधनों से मुक्त हूँ मैं, रक्त-रंजित शस्त्र हूँ मैं ।।

द्रौपदी की चेतावनी-

पहचान अरि अपना हित तू, ये युद्ध प्रबल टल जाने दे ।
हाथों को अपने जोड़ के झुक, मुझे क्रोध रहित हो जाने दे ।
नारी सदैव गौरव गाथा, नारी नारायण की भाषा ।
नारी में सृजन समाया है, नारी जग की मृदु अभिलाषा ।
नारी का तू अपमान ना कर, भीषण अधर्म का काम ना कर ।
तू ठहर, ना कर ये नादानी, ना छेड़ मुझे ऐ अभिमानी ।।

अंतिम अवसर तूझे देती हूँ, तू सोच दण्ड मुझे छूने का ।
अपने जीवन की रक्षा कर, वर सुखद विरासत जीने का ।।

द्रौपदी का विलाप-

चीरहरण का पाप किया, कुल की मर्यादा खाक किया ।
तेरी मति गयी है मारी, जो तूने भीषण अपराध किया ।।

नीर निरीह हुए ओझल, चछु ने चंचलता खोयी ।
तू अबोध दुशासन ना समझ सका की वीर द्रौपदी क्यों रोयी ।
तू बोल ये उपवन क्यों उजड़ा, ऋंगार रति का क्यों बिखरा ।
पंचवटी सा पावन तन मेरा, लंपट नैंनो में क्यों सिहरा ।।

शर्मसार हुई जग-जननी, करके विलाप वो रोयी है ।
क्या चीरहरण अब धर्म हुआ, क्यों वीर सभा यूँ सोयी है ।

द्रौपदी की रौद्र प्रतिज्ञा-

करती हूँ प्रण ये केश खोल, ऋंगार कभी ना साधूंगी ।
जब तक ना रक्त मिले तेरा, ये केश कभी ना बाँधूंगी ।।

द्युत हार गये सुत कुंती के, पर शस्त्र ना हारे वीरों ने ।
तू देख भयंकर रण होगा, अब तीर लड़ेगे तीरों से ।।

देती हूँ तुझको परिचय अब, मेरे जीवन का प्रसंग देख ।
तू देख मुझे आरम्भ देख, मेरे बल का तू दम्भ देख ।
तू देख हलाहल डोला है, उद्घोष समर के बोला है ।
ये युद्ध देख विकराल देख, अपने बच्चों का काल देख ।
मेरे प्रण में है युद्ध छुपा, कुरुक्षेत्र की धरती लाल देख ।
न्योछावर होते नर शीश देख, निज कुल के बुझते दीप देख ।
तू देख दुशासन काल देख, मेरे भीतर महाकाल देख ।
तू देख प्रलय अब आनी है, ये सूर्य तेज छिप जानी है ।
तू देख निशब्द दिशाओं को, तू देख वीभत्स भुजाओं को ।
तू देख व्याघ्र मंडराते हैं, हर्षित मन से मुसकाते हैं ।

मुखमंडल का ये तेज देख, निर्भयता का संदेश देख ।।
मैं अर्धनग्न शर्मायी हूँ, पर किंचित ना घबरायी हूँ ।

तू सतीत्व मेरा हरने आया, यौवन मेरा वरने आया ।
अब अग्निकुण्ड ये फूटेगा, सौभाग्य मनुज के लूटेगा ।
बन गिद्ध निशाचर टूटेंगे, वीरों के शव को लूटेंगे ।
हवन कुंड सज जायेंगे, कौरव आहुति बन आयेंगे ।
धूं-धूं कर चिता जलेगा, सब वीरगति को पायेंगे ।।

आ दुशासन खींच मुझे, अपने भुज बल से भींच मुझे ।
कर ले तू अपने मन को शांत, हो जाने दे ये युद्ध तमाम ।

जिस रण की थी ना चाह मुझे, तू कुरुक्षेत्र तक लाया है ।
ये तेरे वश की बात नहीं, ये कालगति की माया है ।

अब पांसे फेकेगा काल यहाँ, यम वीरों के केश संवारेंगे ।
पांडव जीते या हारेंगे, पर तुम सौ को संहारेगे ।

कवि- अजीत कुमार सिंह