मिज़ाज-ए-गर्दिश-ए-दौराँ1 बदल गया होगा,
जो आया है दर पे आज, कल गया होगा।
मकाँ-ए-रंक2 में जो आया है इतराता हुआ,
ज़रूर वो कल किसी के महल गया होगा।
मुकर कर चला गया वो अपने वादे से आज,
आख़िर वो मौसम सा था, बदल गया होगा।
दिल पर पत्थर रखे बैठा था अब तक जो,
मेरे अश्कों के सैलाब में पिघल गया होगा।
वो जो मेरे नसीब में न था लिखा हुआ कभी,
किसी की किताब का पन्ना निकल गया होगा।
देखा न जिसने कभी आँखों में अक्स अपना,
आज किसी और के अक्स में ढल गया होगा।
1. समय के चक्र का स्वभाव; 2. गरीब का घर।
यह ग़ज़ल मेरी पुस्तक ‘इंतज़ार’ से ली गई है। इस किताब की स्याही में दिल के और भी कई राज़, अनकहे ख़यालात दफ़्न हैं। अगर ये शब्द आपसे जुड़ पाए, तो पूरी किताब आपका इंतज़ार कर रही है। – पन्ना