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अचरज है कैसे

अचरज में हूं मैं न जाने कब से

भारी भरकम आदमी की बोली हल्की कैसे
हल्के आदमी की बातों में वजन है कैसे

चींटियां आंख बिन चढ़ती दुर्गम पहाड़ों पर
आंखवालों की कमर टूटती बिस्तर पर कैसे

सुंदरता झुकाती है अकड़ वाले पहाड़ों को भी
पहाड़ी तन निर्मित न करते इक फूल भी कैसे

दूध दही की नदियां बहाते हैं जो नित निज घर
फीके पेय की घूंट को हर दिन गले लगाते कैसे

बड़ों की सीख पल भर भी न सिर टिकने दिया
बच्चों को वही सिखलाते हुए न शरमाते कैसे

जिंदगी को खुशी की इक बुंद भी तोहफे में न दी
औरों की जीवन की खुशियों को खा जाते कैसे

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