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अपना इलाहाबाद

कविता- अपना इलाहाबाद
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दिन भर टहल रहे थे,
पार्क सहित संगम में,
देख दशा हम शोक में डूबे,
अपना इलाहाबाद है ऐसा|
एक तरफ तो न्यायालय है,
एक तरफ संगम है,
एक तरफ तो शिक्षा मंदिर,
एक तरफ जमुना की धारा है|
यहीं पड़ा-
स्वराज भवन भी,
यहीं खड़ी-
आजाद की मूरत भी|
सब कुछ मिलेगा जो चाह तेरी,
प्यार मोहब्बत –
राजाओं का चिन्ह मिलेगा,
जहां से आजादी की गूंज उठी,
वह तुमको स्वराज भवन मिलेगा,
मिले अतीत से तो ,मन हर्षित होता,
अपना इलाहाबाद है ऐसा|
जो सोच रही
गांधी नेहरू वीर जवानों की,
रोटी बेटी शिक्षा स्वास्थ्य,
सब के पास सुरक्षित घर होगा,
आओ दिखाएं शहरों में,
कोई नन्हा सा बच्चा कूड़ा बिनता होगा|
देख दशा-
शासन से पूछ रहा हूं,
कैसी व्यवस्था-
व्यवस्था की क्या परिभाषा है?
छोटे बच्चे पलते भीख के सहारे,
जहां पर संगम बसता है,
देखता हूं अपनी आंखों से,
कुछ जूठा समोसा खाते हैं,
भूख मिटाने के खातिर-
हाथ पसारे पार्कों में घूम रहे,
मिला नहीं भोजन का टुकड़ा,
मनमाना गाली पाते रहे,
एक लड़की दौड़ी अंकल अंकल कह,
मेरे पास वो आई हाथ पसारे,
मैले गंदे बालों में
फटे पुराने कपड़ों में,
हमें पैसा दे दो ,हमें भूख लगी हैं,
हम पूछे तेरे घर में कौन-कौन है,
बोली सब कोई है-
बस मम्मी ना, पापा है,
पापा पी के दारु सोते हैं,
घर का खर्चा भीख सहारे चलता है|
अब किससे पूछें,
इसका दर्द सुनाएं|
जनता को दारू मिल गई,
इन बच्चों को भोजन नहीं
लाखों में है भवन बने,
इनके परिजन में शिक्षा ना,
कहें ‘ऋषि’ निकलो पूंजीपतियों सब,
चलो गांव शहर में देखें,
कोई नंगा भूखा सोया होगा,
गुरुओं से भी कहता हूं,
उन्हें भोजन देकर-
शिक्षा मंदिर में लाना होगा|
ना फिर कोई कूड़ा उठाएं,
बच्चों के कंधों से, कूडे का बोझ हटाना होगा,
शहर गांव के स्कूलों में,
सस्ती सुंदर रोजगार परक,शिक्षा को लाना होगा,
फिर चमके फिर महके
खुशहाल रहें अपना इलाहाबाद हो ऐसा|
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***✍ऋषि कुमार ‘प्रभाकर’——-

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