अपने ही सूरज की रोशनी में
मोती–सा चमकता
औस का कतरा है आज़ वो
जो कल तक था
अंधेरे में जी रहा।
कितनो की आँखों का
तारा है आज़ वो
जो कल तक था
अज़नबी बनकर जी रहा।
दूसरो के कितने ही
कटे जख्मों को है वो सी रहा
लेकिन अपने ग़मों को
अभी भी
वो खुद ही है पी रहा।
कितनी ही बार जमाने ने
उसे गिराया लेकिन
वो फिर–फिर उठकर
जमाने को ही
सँवारने की तैयारी में
है जी रहा।
अपने दीया होने का
उसने कभी घमण्ड नहीं किया
तभी तो आज़ वो
सूरज सी चमक लेकर
है जी रहा।
जीवन कि दिशा पाकर
आज़ वो दुनियाँ को है जीत रहा
जो कल तक था
खुद से ही
हारा हुआ सा जी रहा।
अपनी मौत का भी
डर नहीं अब उसको
क्योंकि उसे मालूम हो गया
कि गडकर इन पन्नों पर
वो सदियों तक होगा जी रहा।
– कुमार बन्टी