मैं आज जो निकली राहों पर
यह राह मुझे बात सुनाती है
कहे शर्म तो आती ना होगी
मेरा घ्रणा से नाम बुलाती है
कहे घूम रही चौराहों पे
कोई वजह है या आवारा है
पत्थर मुझे पत्थर कहते हैं
धित्कारे चौक चौराहा है
सूरज की किरण से शरीर जला
सन्नाटा पसरा चारों ओर
करें भयभीत भयावर नैनों से
एक पवन का झोंका करे था रोश
यहां आई तो मुझको पता चला
प्रकृति खुद बनी पेहरी थी
सिर अपना झुका घर लौट गई
क्योंकि गलती तो मेरी थी
फिर खुद पर बैठकर रोश किया
क्यों देश नजर ना आया मुझे
यह भूल फिर ना होएगी अब
यह वादा कर लिया था खुद से