बेईमान-सा मन
गिरती-उठती दीवारें
आज सिर उठाकर खड़ी हैं
यूँ तो सरचढ़ी हैं
पर कुछ जिम्मेंदारियां भी हैं
छत को संभाले हुए
दिन भर खड़ी रहती हैं
शाम को थककर चूर हो जाती हैं
रात के एकाकीपन में
मेरी नज़रों से फिसलती हैं
सुबह उठकर
मेरी ओर बढ़ती हैं
कुछ तो रिश्ता है दीवारों से
शायद कुछ कहना चाहती हैं!!