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क्यों

क्यों एक बेटी की विदाई तक ही
एक पिता उसका जवाबदार है ?
क्यों किस्मत के सहारे छोड़ कर उसको
कोई न ज़िम्मेदार है?

क्यों घर बैठे एक निकम्मे लड़के
पर वंश का दामोदर है ?
क्यों भीड़ चीरती अपना आप खुद लिखती
एक बेटी का न कोई मदतगार है?

क्यों कपूत हो या सपूत
हर हाल में स्वीकार है ?
फिर क्यों एक बेटी के घर रहने से
कुटुंब की इज्ज़त बेकार है ?

क्यों कोई जो नज़र डाले उस पर
तो वो ही कसूरवार है ?
क्यों कोई पूछता नहीं उस बेटे से
जिसे मिले ऐसे संस्कार हैं?

क्यों एक बेटे के विदेश से लौट आने का
घर में रहता सबको इंतजार है
पर एक बेटी का नाकामयाब रिश्ते से
बाहर आना सबको नागवार है ?

क्यों जीने से मरने तक तुमको सिर्फ
बेटों से सरोकार है?
ऐसा अब क्या रह गया है जो
एक बेटी की पहुँच से बाहर है ?

क्यों बेटियाँ ही पराई हैं और बेटो को मिला
हर अधिकार है ?
कोई ढूंढें उसे,जो ऐसी विकृत सोच दे कर दुनिया को
न जाने कहाँ फरार है?

अर्चना की रचना “सिर्फ लफ्ज़ नहीं एहसास”

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