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ख्वाब।

अक्सर मैं भूल जाती हूं ,
अपनी राह।
ख्वाब अनेकों हैं,
अब खत्म है चाह।
कभी उम्र की सीमा रोक देती है,
कभी दूसरों की सलाह।
पर भुला कर बढ़ती हूं आगे,
फिर से उठते हैं,
यह सवाल।
कि कब बंधोगी!
उस बंधन में।
और मेरा होता है,
यही जवाब!
क्या मेरा सबके जैसा होना जरूरी है!
वही रोज;रोजी रोटी की बाट जोहना जरूरी है!
आज फुर्सत के चार पल चुरा लूंगी,
क्या यह सोचना जरूरी है!
जरूरी है कि मैं किस तरह जीना चाहती हूं,
किसी के साथ या किसी के बिना।
क्यों वही करूं जो सब चाहते हैं।
खैर छोड़ो ! अब मत पूछो यह सवाल।
मैं बस जीना चाहती हूं ,
अपने मुक्कमल ख्वाबों के साथ।

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