जब होश संभाला तो
तुमसे जिंदगी को समझाया जाता था
अब कुछ भी समझता हूँ
तो तुम्हारा सृजन होता है
जब मस्तिष्क का ताल
दिल के तारों को छेड़ता है
तो झंकृत हो तुम बाहर आती हो
तुम तब भी होती हो
जब रात चोरी-छिपे
दिन से मिलकर भाग रही होती है
और तब भी,
जब नदी किनारे
आसमान वसुंधरा की गोद में
अपना सर रख अपने प्यार का इजहार कर रहा होता है
तुम जीवन की हरेक खुशहाली में
शहद की तरह घुली तो हो ही
जीवन के नीम अँधेरे में भी
तुम ज्योतिर्मय हो
‘कविता’ तुम बसी हो
जीवन के हरेक क्षण में,हर कण में
क्योंकि तुम भी तो एक जिंदगी हो…..
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